— डॉ. दीपक पाचपोर
राहुल के बयानों की आलोचना करने के लिये अब भाजपा को बदलती दुनिया के अनुरूप नये मानदण्ड बनाने होंगे। उसे अपने शब्दकोश के साथ ही खुद को समानता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व, धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों से स्वस्फूर्त सम्पन्न करना होगा। 'लोकतंत्र' और 'संविधान' की तरह नहीं, जिसका उल्लेख करना उसने तब शुरू किया था जब उसे चुनावी हार दिखने लगी थी।
राहुल गांधी फिर से अमेरिका में हैं;
एक बार फिर से वे वहां बस गये भारतीयों के सामने दिल खोल रहे हैं;
पुन: वे भारत में लोकतंत्र की स्थिति पर बात कर रहे हैं;
अब फिर से कुछ लोग, जिनका अस्तित्व इस बात पर टिका है कि उनकी पार्टी के कुकृत्यों का कहीं भी खुलासा हो- गल्ली से दिल्ली तक या कहें कि डेल्ही से डेलास तक- फनफना उठें; और ऐसा जवाब दें जिसके पीछे उदार विचारधारा का न तो कोई संदर्भ हो और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों का लेशमात्र भी आग्रह;
एक बार फिर भारत में बैठे वे लोग नाराज़ होंगे जो मानते हैं कि देश को आजादी 2014 में मिली है; या पहले मिली भी है तो वह 99 साल की लीज़ वाली थी।
बहरहाल, राहुल गांधी कुछ भी कहें, इसका जवाब या स्पष्टीकरण जहां से आना चाहिये वहां से नहीं आता बल्कि उन लोगों की ओर से आता है जिन्हें न तो इसके लिये अधिकृत किया जाता है और न ही वह पार्टी का मान्यताप्राप्त बयान होता है। हिमंता बिस्वा सरमा, अनुराग ठाकुर, निशिकांत दुबे, स्मृति ईरानी, कंगना रनौत या गिरिराज सिंह जैसे कुछ लोग हैं जो बार-बार एक जैसी प्रतिक्रिया देते हैं। उनका दुर्भाग्य यही है कि वे राहुल के लिये कोई नया आलोचना शास्त्र नहीं लिख पाये हैं। वह उन्हीं मानदण्डों पर है जो 2014 के आसपास बनाया गया था और जिस हांडी पर एक बार खिचड़ी पकाई जा चुकी है। यह उनके समर्थकों का भी दुर्भाग्य है कि वे उन्हीं की कही बातों पर भरोसा कर रहे हैं जबकि थोड़े बहुत जो समझदार लोग भाजपा या सरकार में हैं, वे सारे राहुल की आलोचना से किनारा कर चुके हैं।
अब गिरिराज की ही बात करें तो वे पुरानी बातें ही कह रहे हैं- मसलन, 'विदेशी धरती पर भारत की आलोचना', 'भारत की बदनामी', 'दुश्मन देशों को प्रोत्साहन' आदि। इन्हीं जैसों में से किसी की बात का सिरा थामकर खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह कह देंगे कि 'पता नहीं कांग्रेस को देश से क्या दुश्मनी है' या 'उन्हें देश की इज़्ज़त प्यारी नहीं' आदि। ये सारी बातें मोदी के जुमलों की तरह की बासी हो चुकी हैं जिस पर पानी छिड़ककर वैसा ही ताज़ा किया जाता है जैसे कोई कुंजड़िन बासी सब्जियों पर पानी का छिड़काव कर उसे ताज़ी बनाये रखने की कोशिश करती है, ताकि वह उसे अगली सुबह बाज़ार में बेच सके। मजेदार यह है कि इस विचार और सब्जी के खरीदार अब भी हैं जबकि वे जान चुके हैं कि इस आलोचना में कोई तार्किकता रह नहीं गयी है। फिर भी, पहली बात वे यह समझ लें कि लोकतंत्र एक सार्वभौमिक और संयुक्त अवधारणा है। एक देश में लोकतंत्र को खतरा अन्य देशों की चिंता का विषय हो सकता है। जैसे पड़ोसी देशों में सैन्य सरकार की स्थापना अथवा निर्वाचित सरकार का तख्तापलट कोई देश नज़रंदाज़ नहीं कर सकता।
दूसरे, जिन लोगों के सामने राहुल ने यह बात कही है वे भारतीय ही हैं जिन्हें खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 'भारत का हिस्सा' बताते रहे हैं। वे वहां इसीलिये बस गये हैं क्योंकि उन्हें सुव्यवस्था और सुशासन दिखता है। साथ ही अवसरों की बहुलता दिखी है। इन सब बातों का भारत में अभाव ही तो उन्हें उस नयी दुनिया में ले गया। वहीं उन्हें विविधता का सम्मान करना आया, समतामूलक समाज के दर्शन हुए, धर्मनिरपेक्षता को उन्होंने जाना और लोकतंत्र का महत्व समझा। कुछ अपवादों को छोड़कर ये सारे भारत से गये वे लोग हैं जो साधन-सम्पन्न थे। कुछ समय वहां रहने के बाद देशज धारणाओं को त्यागकर उन्होंने अमेरिकी मूल्यों को अपनाया है। यह अलग बात है कि मोदी के कारण उन्होंने फिर से भारत को वैसा ही बनाना चाहा जो गैरबराबरी वाला हो, लोकतांत्रिक मूल्यों से विहीन हो, तानाशाही का पुट लिये हुए हो और बहुलतावादी वर्चस्व का हिमायती हो। 'हाउडी मोदी' और 'अबकी बार ट्रम्प सरकार' वाली भीड़ की जब आंखें खुलीं तो वह राहुल के लिये पलक पांवड़े बिछाने लगी। बकौल गिरिराज सिंह 'देश की बदनामी यहां से शुरू होती है।'
प्रेस के बारे में तो सीधी बात है कि अंतरराष्ट्रीय प्रेस का कोई अपना देश नहीं होता। विशेषकर अमेरिका या सच्चे मायनों में किसी भी लोकतांत्रिक देश का प्रेस वैश्विक दृष्टिकोण से काम करता है- निष्पक्ष होकर। वह अमरीकी राष्ट्रपति को तक नहीं छोड़ता, तो उसके लिये भारत का प्रधानमंत्री खबरों के एक स्रोत से बढ़कर कोई अहमियत नहीं रखता। समर्थकों के लिये कोई नेता उनका भगवान हो सकता है लेकिन उस प्रेस बिरादरी के लिये सारे राष्ट्राध्यक्ष एक सरीखी अहमियत और स्थान रखते हैं। अंत में, वर्तमान डिजीटल युग में आप जहां भी बैठकर कुछ कहें वह वैश्विक प्रसार पा ही जाता है। विदेशी धरती पर जाकर देश की आलोचना करने की शिकायत वे ही करते हैं जो बेहद पुराने कालखंड में जी रहे हैं।
भाजपा समर्थकों को इस बात से भी परेशानी है कि राहुल ने वहां चीन की इस बात को लेकर तारीफ़ की है कि उसने रोजगार की समस्या पर काबू पाया है। अगर यह सच है कि चीन ने ऐसा किया है तो उसका उल्लेख करने में क्या परेशानी है? अगर लगता है कि यह गलत बयानी है तो मोदी अपनी आसन्न यात्रा में सही आंकड़े पेश कर राहुल का मुंह बन्द कर दें। इसका उल्लेख करने मात्र से कोई देशद्रोही और न करने से कोई देशभक्त नहीं बन जाता। यह पाठ भी भाजपा को अपने आलोचना शास्त्र से हटा देना चाहिये क्योंकि लोग जानते हैं कि पिछले 10 वर्षों में सरकार द्वारा कुछ एप पर प्रतिबन्ध और उनके समर्थकों द्वारा दीवाली की झालरों के बहिष्कार से बढ़कर कुछ नहीं किया गया है। भारत चीन को जितना निर्यात कर रहा है, उससे कई गुना अधिक आयात करता है। चीन ने कितनी भारत की जितनी जमीन हथियाई है और कितने गांवों के नाम बदल दिये हैं- इसे लेकर सरकार को बयान देना चाहिये और पहले की भौगोलिक स्थिति को बहाल करना चाहिये। यही लाल आंखें दिखाना है।
दुनिया जिस तेजी से बदली है, उसे भाजपा पकड़ नहीं पा रही है। न ही मोदी समझ सके हैं। खासकर, 2019 की महामारी (कोरोना) और राहुल की दो यात्राओं के बाद लोगों की समझ में बड़ा फर्क आया है। पहले नागरिकों के मुकाबले राज्य को बलशाली बनाने की कोशिश की जा रही थी, पर लोगों को अंतत: अपने आर्थिक सशक्तिकरण का महत्व समझ में आ गया। लोकसभा के चुनावी नतीजे यही बताते हैं। यदि भाजपा आज सरकार में है तो वह इसलिये कि कांग्रेस का चुनावी प्रबन्धन आर्थिक रूप से सशक्त नहीं हो पाया था। उसे भीतरघात तो मिला ही, इंडिया गठबन्धन को नीतीश कुमार और जयंत चौधरी ने ऐन वक्त पर धोखा भी दिया। आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के साथ समझौते भी आधे-अधूरे रहे।
राहुल के बयानों की आलोचना करने के लिये अब भाजपा को बदलती दुनिया के अनुरूप नये मानदण्ड बनाने होंगे। उसे अपने शब्दकोश के साथ ही खुद को समानता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व, धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों से स्वस्फूर्त सम्पन्न करना होगा। 'लोकतंत्र' और 'संविधान' की तरह नहीं, जिसका उल्लेख करना उसने तब शुरू किया था जब उसे चुनावी हार दिखने लगी थी। अपने नेतृत्व एवं काडर को उसे इन मूल्यों का महत्ता बतलानी होगी तब कहीं राहुल या कांग्रेस की उसकी आलोचना में वज़न पड़ेगा।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)